मंगलवार, 23 मार्च 2010

धार्मिक प्रवचनों एवं सांस्कृतिक आयोजनों का प्रभाव

<मान्यताएँ बदली है, त्योहारों का स्वरुप बदला है परन्तु मूल भावना अभी भी कायम है.रंगों का पर्व होली जहाँ हमारे जीवन में नये रंग भारती है वहीं हमारे जीवन को जीवंत भी बनाती है.आजादी मनुष्य की कीमती धरोहर है,होली उसकी पहचान को अभिव्यक्ति देने वाला सबसे बड़ा पर्व है.आज के तनाव भरे आपाधापी के जीवन में रंग घोलना अवश्यक है ताकि नीरस जीवन उल्लासमय हो और हम दुगनी स्फूर्ति के साथ जीवन पथ पर अविरल बढ़ते जाएँ. होली भी आत्मिक और शारीरिक स्तर पर आनंद का त्यौहार है. इस अवसर पर तन-मन हर्षोल्लास से भरा होता है.टेसू के फूल व् कोयल की कूक भी इस ऋतु में आकर्षण का केंद्र होती हैं. होली मात्र रंगों का त्यौहार नहीं है,इसके पीछे कोई न कोई पौराणिक कथानक जुड़ा हुआ है जो हमें न केवल सीख देते हैं साथ ही प्रकृति के अनुकूल और प्रतिकूल प्रभावों के प्रति सक्षम भी बनाते हैं.हिरण्य कश्यप,भक्त प्रह्लाद और होलिका से जुड़ा आख्यान बुराई पर अच्छाई की जीत की सीख देता है.होली का उद्देश्य ही है कि अपने अहंकार,दुराग्रह और भीतर छुपी बुराईयों को जलाकर भस्म कर दें. जब बुराइयां दूर हो जाती हैं तो मन निर्मल हो जाता है,ह्रदय में सिर्फ प्रेम प्रवाहित होता है.जिसमे जीवन के विभिन्न रंग घुले होते है.प्रेम पूर्वक रहना प्रकृति प्रदत्त गुण है.बढ़ती महंगाई व् जीवन में बढ़ती व्यस्तता के कारण होली का रंग भी धूमिल होता जा रहा है,नंगाड़े,ढोलक मांदर [मृदंग] की आवाज़ भी क्रमशः गायब हो रही है. त्यौहार पर हावी हो रही कृत्रिमता को ख़त्म करना होगा. त्योहारों से हमारे निजी,पारिवारिक और सामाजिक जीवन को प्रकृति की पोषणकारी शक्ति मिलती है और प्रत्येक कार्य सुचारू रूप से होता है. इस त्यौहार की हमारे संतुलित विकास में महत्वपूर्ण भूमिका है.> <प्राकृतिक रंगों-टेसू के फूलों और अबीर-गुलाल की जगह रासायनिक रंगों ने ले ली है .भाँग और ठंडाई की जगह दारू ने ले ली है और ढोल-मंजीरों के स्थान पर कानफोडू संगीत बजने लगा है. ये प्रकृति के साथ तादात्य के बज़ाय उसे क्षति पहुँचने वाले काम है. मानवीय उन्मुक्तता को मनाने के बजाय उसे क्षति पहुँचने वाले काम है. उद्दाम उदारता की बजाय एक झिझक भरी सिकुडन है. यह हमारे सभ्य होने का एक दुष्परिणाम नही तो क्या है ? हम सब में आया एक नकारात्मक बदलाव,एक ओढ़ी हुई शालीनता. होली आज भी उन्मुक्त करती है पर हम कहाँ हो पाते हैं?आज भी होली गांवों,कस्बों और नगरों के हर मोहल्ले में जलाई जाती है. होली की राख़ लगाकर लोगों से गले मिला जाता है ,रंगों से खेला जाता है.अच्छा हो कि प्राकृतिक रंगों की ओर तेज़ी से लौटा जाए क्योंकि रासायनिक रंगों से मानवीय त्वचा और आँखों पर बेहद बुरा असर पड़ता है.इसी तरह होली पर लाखो तन लकड़ियाँ फूक डाली जाती है .> [[लोकसुर> <छतीसगढ़ की कला संस्कृति एवं साहित्य की मासिक पत्रिका> <८ मार्च २०१०]] <के अंक में सम्पादकीय>

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